आश्वस्त हूं - प्रसून जोशी

आश्वस्त हूं..
सर्प क्यों इतने चकित हो 
दंश का अभ्यस्त हूं
पी रहा हूं विष युगों से 
सत्य हूं आश्वस्त हूँ

ये मेरी माटी लिए है 
गंध मेरे रक्त की 
जो कहानी कह रही है 
मौन की अभिव्यक्त की 
मैं अभय ले कर चलूंगा 
ना व्यथित ना त्रस्त हूं

वक्ष पर हर वार से 
अंकुर मेरे उगते रहे 
और थे वे मृत्यु भय से 
जो सदा झुकते रहे
भस्म की सन्तान हूं मैं
मैं कभी ना ध्वस्त हूं

है मेरा उद्गम कहां पर 
और कहां गंतव्य है 
दिख रहा है सत्य मुझको 
रूप जिसका भव्य है 
मैं स्वयम् की खोज में 
कितने युगों से व्यस्त हूं

है मुझे संज्ञान इसका
बुलबुला हूं सृष्टि में 
एक लघु सी बूँद हूं मैं 
एक शाश्वत वृष्टि में 
है नहीं सागर को पाना 
मैं नदी संन्यस्त हूं

प्रसून जोशी

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