लंका की अशोक वाटिका में माता सीता और हनुमान जी का संवाद


लंका की अशोक वाटिका में माता सीता और हनुमान जी का संवाद :
वृक्ष के पत्तों की आड़ में छिपे हनुमान जी ने ‘जय श्रीराम’ का घोष किया और अयोध्या नरेश दशरथ के चार पुत्रों के जन्म, विश्वामित्र का आगमन, सीता-स्वयंवर, कैकेयी का प्रकोप, राम-लक्ष्मण और सीता का वन गमन, सीता का हरण, राम की सुग्रीव से मैत्री, हनुमान का सीता जी की खोज में लंका आना और अशोक वाटिका में वृक्ष पर बैठकर रावण की धमकी को सुनना तथा त्रिजटा के स्वप्न आदि का पूरा वर्णन संक्षेप में किया ।
उस वर्णन को सुनकर सीता जी ने ऊपर की ओर देखा और कहा, ”हे श्रीराम के दूत हनुमान यदि तुम अभी भी छिपकर यहा बैठे हो तो मेरे सामने आओ ।” सीता जी के वचन सुनकर हनुमान जी वृक्ष से कूदकर नीचे आ गए और सीता जी के सम्मुख अपने सामान्य रूप में आकर हाथ जोड़कर खडे हो गए ।
उस वानर को देखकर सीता जी ने पूछा, ”मैं यह कैसे मानुं कि तुम श्रीराम के दूत हो ? तुम तो वानर हो ।” हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा, ”हे माते ! मैं श्रीरामचंद्र जी का दूत हूं और आपके लिए उनका संदेश लाया हूं । श्रीराम जी अपने छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ सकुशल हैं ।”
यह कहकर हनुमान जी ने श्रीराम की मुद्रिका सीता जी को दी और कहा, ”इस अंगूठी से आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं । यह श्रीराम ने ही मुझे दी है और कहा है कि वे यथाशीघ्र आपको संकट से मुक्त कराने के लिए यहां आएंगे ।”
सीता जी ने अंगूठी को देखकर पहचाना तो उनकी औखें भर आईं और उनके टप-टप औसू टपकने लगे । वे रुंधे स्वर में बोली, ”हे वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ! तुम सचमुच में मेरे स्वामी के दूत हो । तुम्हारा कल्याण हो । परंतु मैं सोचती हूं कि तुम वनचारी वानरों की सहायता से वे मेरी किस प्रकार रक्षा कर पाएंगे ? यहां तो बड़े विकट राक्षस हैं ।
उनके लिए कोई कार्य कठिन नहीं है । तुम बुद्धिमान लगते हो, पर क्या इतने शक्तिशाली भी हो, जो इन राक्षसों का सामना कर सको ?” सिताजी के वचन सुनकर हनुमान जी ने अपना विशाल स्वरूप दिखाया और कहा, ”माते आप मुझे साधारण वानर न समझो । मेरे जैसे सैकड़ों वानर श्रीराम के साथ हैं ।
उनकी आप जाने दें, यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अकेला ही इस लका का विध्वंस कर सकता हूं और लंकापति रावण को उसके समस्त बंधु-बांधवों सहित रसातल में पहूंचा सकता हूं । ”हनुमान जी के विशाल स्वरूप को देखकर सीता जी ने आश्वस्त होकर कहा, ”वत्स! तुम बड़े पराक्रमी हो ।
तुम्हारी शक्ति अपार है । तुम सौ योजन समुद्र को लाघकर यहाँ आए मैं तभी समझ गई थी कि तुम कोई साधारण वानर नहीं हो । अब तुम फिर से अपने सामान्य रूप में आ जाओ और मुझे स्वामी के विषय में बताओ । क्या वे मुझे याद करते हैं ? प्रिय लक्ष्मण का कहना न मानकर मैं उसकी खींची रेखा से बाहर आकर उस छलिया रावण को भिक्षा देने लगी, तभी उसने बलपूर्वक मेरा अपहरण कर लिया ।
आज मैं उसी का फल भोग रही हू । वह मुझसे अवश्य रुष्ट होगा ।” हनुमान जी ने कहा, ”माते आपने मुझे अपना पुत्र कहकर पुकारा है । मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे आप जैसी माता का वरदहस्त प्राप्त हुआ है और श्रीराम जी जैसे स्वामी की चरण वंदना का अवसर मिला है ।
मैं आपको शपथपूर्वक यह बता रहा हूं कि आपके विरह में श्रीराम और लक्ष्मण जी भारी संताप के मध्य जी रहे हैं । वे रात-रात भर जागकर आपके बारे में ही सोचते रहते हैं । श्रीराम तो यह भी नहीं जानते कि आप यहां लंका में हैं । मैं जब यहा से लौटकर जाऊंगा, तभी उन्हें पता चलेगा कि आप यहां कितने संकट में जीवन-यापन कर रही हैं ।
उन्हें जैसे ही पता चलेगा, वे वानर और भालुओं की विशाल सेना लेकर वहां से चल पड़ेंगे और इस समुद्र पर सेतु का निर्माण करके लंका पहुँच जाएंगे । श्रीराम के बाण इस लंका पुरी का विध्वंश कर देंगे और रावण को उसके किए का उचित दण्ड देंगे ।
स्वयं यमराज और देवगण भी उसे नहीं बचा पाएंगे । आप धैर्य धारण करें । मैं यहाँ से जाकर यथाशीघ्र श्रीराम को आपके विषय में बताऊंगा । आप चिंता त्याग दें । बस अपनी निशानी के तौर पर अपनी कोई चीज मुझे दे दें, ताकि मैं उन्हें विश्वास दिला सकू कि मैं आपसे मिला हूं ।”
सीता ने हनुमान की बात सुनी तो अपने केशों से उतारकर अपनी चूड़ामणि हनुमान को देते हुए कहा, ”वत्स! मेरी यह चूड़ामणि वे देखते ही पहचान जाएंगे । जाओ, यथाशीघ्र यहां से जाओ और जल्द से जल्द उन्हें लेकर यहां आओ । उस दुष्ट रावण ने मुझे एक माह का समय दिया है । उसके बाद वह मुझे खा जाएगा । कहीं ऐसा न हो कि उन्हें आने में विलंब हो जाए ।”
”विलंब नहीं होगा मातें!” हनुमान जी बोले, ”मैं पलक झपकते ही इस सागर को पार कर जाऊंगा । आप जरा भी चिंता न करें । परंतु यहां से जाने से पहले मैं आपसे यह विनती करना चाहता हूं कि मुझे बडे जोर की भूख लगी है । यदि आप आज्ञा दें तो मैं इस वाटिका में लगे फलों से अपनी भूख मिटा लूँ ।”

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